About Us

                                                                 

सिंह भले ही जंगल का राजा हो, रहना उसे राजपूतों के नाम के पीछे ही है।

वंश परिचय

SHRI KRISHNA

Bhati Rajputs claim their descent from Lord Krishna. He was an avatar of God Vishnu. As such, Bhati Rajputs identify themselves as  Chandravanshi Kshatriya. It is believed that Lord Krishna was born 5252 years ago in Mathura Jail at 00.00 AM on Ashtami (Wednesday) of Shravan month in Rohini Nakshatra. His date of birth is calculated as 18th July 3228 BC.

Shri Krishna was the son of Devaki and Vasudeva. Since his parents were in jail, he was brought up by Yashoda and Nanda in Nandgram/Gokul of Mathura. His elder brother Balram was the son of Rohini and Vasudeva. He also had a sister named Subhadra.  His wife’s were Rukmini, Satyabhama, Jambavati, Kalindi, Mitravinda, Nagnajiti, Bhadra and Lakshmana

It can be said that life was not fair to him.. He was dark skinned and was never named throughout his life. Despite never being formally named, he is known by one thousand names. For that reason he is also called Sahasranaman.  Whole village of Gokul started calling him Kanha because of his dark skin.  He was ridiculed and teased for being black, short and adopted too. His childhood was wrought with life threatening situations. Shri Krishna shifted from Gokul to Vrindavan and stayed there till the age of 16.

Shri Krishna completed his education at Sandipani’s Ashram in Ujjain. While in Ashram, he had to fight pirates from Afrika to rescue his teacher’s son Punardatta who was kidnapped near Prabhasa, a sea port in Gujarat. After his education, he came to know about his cousins’ fate at Varnavat. He came to their rescue and later got his cousins married to Draupadi. Thereafter, he helped his cousins to establish their Kingdom at Indraprastha. Shri Krishna stood by their cousins during their exile and Mahabharata war. 

The Mahabharata war was fought at Kurukshetra when Shri Krishna was 89 years old. It was started on Mrigashira Shukla Ekadashi in BC 3139. This corresponds to 8th December 3139 BC and ended on 25th December 3139. During the war, there was a solar eclipse on 21st December 3139 BC between 3.00 PM to 5.00 PM. During the eclipse, Jayadrath was killed. Bhishma Pitamah died on 2nd February 3138 BC. It was the first Ekadasi of Uttrayana.

 Shri Krishna killed only four persons. They were Charoona, a wrestler, Kansa his maternal uncle and Shishupala and Dantavakra, his cousins.  There was not a single moment when he was at peace throughout his life.  At every turn of his existence, he had challenges and more challenges. He saw his Dwarka washed away.  He faced everything and everyone with a sense of responsibility and yet remained unattached. He is the only person who knew the past and future, yet always lived in present moment.  

Shri Krishna was killed by a hunter named Jara in the nearby forest.   He died 36 years after the Mahabharata on 18th February 3102 BC on attaining the age of 125 years, 08 moths and 07 days

*****

चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान ‘बुध ‘ का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

 

कुल परम्परा 

यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |

३.कुलदेवता 

लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |
 

४. कुलदेवी 

गीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |
 

५. इष्टदेव

 श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |
 

६.वेद 

 
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है – ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद |  इनमे प्रत्येक में चार भाग है – संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ‘ में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है ” मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |…………. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

 

७.गोत्र

 अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र ” अत्री ” कहलाया |
 

८.छत्र 

 मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

 

9.ध्वज

 भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

 

१०.ढोल 

 
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |
 

११. नक्कारा 

अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ‘ नगारबंद’ ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को ‘अस्पी’ , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी’ और हाथी पर रखे जाने नगारे को ‘ रणजीत ‘ कहा गया है |”
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम ” अगजीत ” मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा |
 

१२.गुरु

 रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की ” टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ‘ भेष ‘ अवश्य धारण करना |”
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |
 

13.पुरोहित

पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात

रतनू चारण – भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |
 

15. नदी

 यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |
 

16.वृक्ष

पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग

 मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |
 

18.माला

 
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |
 

19.विरुद

उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की ‘; विरुद ” शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

 

२0.अभिवादन

 जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी ” जय श्री कृष्णा ” कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |
 

21. राजचिन्ह

राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे ” छ्त्राला यादवपती ” और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें ” छ्त्राला यादव ” कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |
Shri Ram Darbar

                                                        राजपूतों की वंशावली 

दस_रवि_से_दस_चन्द्र_से_बारह_ऋषिज_प्रमाण,
चार_हुतासन_सों_भये_कुल_छत्तिस_वंश_प्रमाण
भौमवंश_से_धाकरे_टांक_नाग_उनमा
चौहानी_चौबीस_बंटि_कुल_बासठ_वंश_प्रमाण

अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय,  दस चन्द्र वंशीय, बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है, बाद में भौमवंश. , नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग- अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।

सूर्य वंश की दस शाखायें:

१. कछवाह                      २. राठौड                               ३.  बडगूजर                     ४. सिकरवार

५. सिसोदिया                   ६.गहलोत                              ७.गौर                              ८.गहलबार

९.रेकबार                        १०.जुनने

चन्द्र वंश की दस शाखायें:

१.जादौन                        २.भाटी                                  ३.तोमर                              ४.चन्देल

५.छोंकर                       ६.होंड                                   ७.पुण्डीर                            ८.कटैरिया

९.स्वांगवंश                    १०.वैस

अग्निवंश की चार शाखायें:

१.चौहान                        २.सोलंकी                              ३.परिहार                            ४.परमार.

ऋषिवंश की बारह शाखायें:-

१.सेंगर                          २.दीक्षित                               ३.दायमा                             ४.गौतम

५.अनवार (राजा जनक के वंशज) ६.विसेन                     ७.करछुल                           ८.हय

९.अबकू तबकू               १०.कठोक्स                          ११.द्लेला                             १२.बुन्देला

चौहान वंश की चौबीस शाखायें:

१.हाडा                          २.खींची                                ३.सोनीगारा                         ४.पाविया

५.पुरबिया                      ६.संचौरा                              ७.मेलवाल                          ८.भदौरिया

९.निर्वाण                       १०.मलानी                             ११.धुरा                               १२.मडरेवा

१३.सनीखेची                  १४.वारेछा                             १५.पसेरिया                         १६.बालेछा   

१७.रूसिया                   १८.चांदा                               १९.निकूम                           २०.भावर

२१.छछेरिया                  २२.उजवानिया                      २३.देवडा                            २४.बनकर.

क्षत्रिय जातियो की सूची

(क्रमांक/ नाम/ गोत्र/वंश / स्थान और जिला)

१.सूर्यवंशी /भारद्वाज/सूर्य /बुलन्दशहर / आगरा , मेरठ,  अलीगढ

२.गहलोत / बैजवापेण/सूर्य /मथुरा, कानपुर,  और पूर्वी जिले

३.सिसोदिया /बैजवापेड/ सूर्य /महाराणा उदयपुर स्टेट

४.कछवाहा/ मानव/सूर्य /महाराजा जयपुर और ग्वालियर राज्य

५.राठोड/ कश्यप/ सूर्य / जोधपुर, बीकानेर और पूर्व और मालवा

६.सोमवंशी/अत्रय/ चन्द/प्रतापगढ और जिला हरदोई

७.यदुवंशी/ अत्रय/ चन्दराजकरौली, राजपूताने में

८.भाटी / अत्रय/ जादौनमहारlजा जैसलमेर. , राजपूताना

९.जाडेचा/ अत्रय/ यदुवंशीमहाराजा कच्छ,  भुज

१०.जादवा/अत्रय/ जादौनशाखा अवा. कोटला , ऊमरगढ, आगरा

११.तोमर/ व्याघ्र/चन्दपाटन के राव,  तंवरघार, जिला ग्वालियर

१२.कटियार/ व्याघ्र /तोंवरधरमपुर का राज और हरदोई

१३.पालीवार/व्याघ्र/ तोंवरगोरखपुर/

१४.परिहार/ कौशल्य/अग्नि /इतिहास में जानना चाहिये

१५.तखी/ कौशल्य/ परिहारपंजाब, कांगडा , जालंधर, जम्मू में

१६.पंवार/ वशिष्ठ /अग्नि /मालवा, मेवाड, धौलपुर, पूर्व मे बलिया

१७.सोलंकी/  भारद्वाज/ अग्नि /राजपूताना , मालवा सोरों,  जिला एटा

१८.चौहान/ वत्स /अग्नि / राजपूताना पूर्व और सर्वत्र

१९.हाडा/ वत्स / चौहान / कोटा , बूंदी और हाडौती देश

२०.खींची / वत्स/ चौहानखींचीवाडा , मालवा , ग्वालियर

२१.भदौरिया/ वत्स / चौहान/नौगंवां , पारना, आगरा, इटावा ,गालियर

२२.देवडा/वत्स/चौहान /राजपूताना,  सिरोही राज

२३.शम्भरी /वत्स / चौहाननीमराणा , रानी का रायपुर, पंजाब

२४.बच्छगोत्री/ वत्स/ चौहानप्रतापगढ,  सुल्तानपुर

२५.राजकुमार/वत्स / चौहान/दियरा , कुडवार, फ़तेहपुर जिला

२६.पवैया /वत्स / चौहान /ग्वालियर

२७.गौर, गौड/ भारद्वाज / सूर्य/शिवगढ, रायबरेली, कानपुर, लखनऊ

२८.वैस/ भारद्वाज/चन्द्र /उन्नाव, रायबरेली , मैनपुरी पूर्व में

२९.गेहरवार/ कश्यप / सूर्य / माडा , हरदोई, उन्नाव, बांदा पूर्व

३०.सेंगर/ गौतम/ ब्रह्मक्षत्रिय/जगम्बनपुर, भरेह, इटावा , जालौन,

३१.कनपुरिया/भारद्वाज / ब्रह्मक्षत्रिय/पूर्व में राजा अवध के जिलों में हैं

३२.बिसैन/ वत्स / ब्रह्मक्षत्रिय / गोरखपुर ,गोंडा , प्रतापगढ में हैं

३३.निकुम्भ/ वशिष्ठ/सूर्य/गोरखपुर, आजमगढ, हरदोई, जौनपुर

३४.सिरसेत/भारद्वाज /सूर्य/गाजीपुर, बस्ती, गोरखपुर

३५.कटहरिया/वशिष्ठ्या भारद्वाज / सूर्य/ बरेली, बंदायूं, मुरादाबाद, शहाजहांपुर

३६.वाच्छिल/अत्रय/ वच्छिलचन्द्र/ मथुरा, बुलन्दशहर,  शाहजहांपुर

३७.बढगूजर/वशिष्ठ/सूर्य/अनूपशहर, एटा , अलीगढ,  मैनपुरी , मुरादाबाद , हिसार,  गुडगांव,  जयपुर

३८.झाला/मरीच /कश्यप/चन्द्र/धागधरा , मेवाड,  झालावाड, कोटा

३९.गौतम/गौतम/ ब्रह्मक्षत्रिय/ राजा अर्गल , फ़तेहपुर

४०.रैकवार/ भारद्वाज/ सूर्य/ बहरायच, सीतापुर, बाराबंकी

४१.करचुल /हैहय/कृष्णात्रेय/चन्द्र/बलिया ,फ़ैजाबाद, अवध

४२.चन्देल/चान्द्रायन/चन्द्रवंशी/गिद्धौर, कानपुर, फ़र्रुखाबाद, बुन्देलखंड, पंजाब, गुजरात

४३.जनवार/कौशल्य/सोलंकी शाखा/बलरामपुर, अवध के जिलों में

४४.बहरेलिया / भारद्वाज/ वैस की गोद/  सिसोदिया/रायबरेली,  बाराबंकी

४५.दीत्तत/कश्यप/सूर्यवंश की शाखा/ उन्नाव, बस्ती, प्रतापगढ ,जौनपुर , रायबरेली,  बांदा

४६.सिलार/ शौनिक/चन्द्र/ सूरत , राजपूतानी

४७.सिकरवार/ भारद्वाज/ बढगूजर/ ग्वालियर, आगरा और उत्तरप्रदेश में

४८.सुरवार/ गर्ग/ सूर्य /कठियावाड में

४९.सुर्वैया/वशिष्ठ/यदुवंश/काठियावाड

५०.मोरी/ ब्रह्मगौतम/सूर्य/मथुरा, आगरा, धौलपुर

५१.टांक (तत्तक)/शौनिक / नागवंश,मैनपुरी और पंजाब

५२.गुप्त/गार्ग्य/चन्द्र/अब इस वंश का पता नही है

५३.कौशिक/कौशिक/चन्द्र/ बलिया, आजमगढ, गोरखपुर

५४.भृगुवंशी/भार्गव/चन्द्र/वनारस,  बलिया , आजमगढ, गोरखपुर 

भाटियो की खांपे (शाखाएँ)

भाटी यादव-अभोरिया भाटीं, गोगली भाटी, सिंघवार भाटी, लडूवा भाटी, चहल भाटी, खंगार भाटी, धूकड़ भाटी, बुद्ध भाटी, धाराधर भाटी, कूलरिया भाटी, लोहा भाटी, उतैराव भाटी, चनहड़ भाटी, खापरिया भाटी, थहीम भाटी, जेतुग भाटी, घोटक भाटी, चेदू भाटी, गाहाड़ भाटी, पोहड़ भाटी, छेना भाटी, अटैरण भाटीं, लहुवा भाटी, लपोड़ भाटी, पाहू भाटी, इणधा भाटी, मूलपसाव, धोवाभाटी, पावसणा भाटी, ‘अबोहरिया भाटी, राहड़ भाटी, हटा भाटी, भीया भाटी, बानर भाटी, पलासिया भाटी, मोकल भाटी, महाजाल भाटी, जसोड़ भाटी, जयचन्द भाटी, सिहड़ भाटी, अड़कमल भाटी. जैतसिंहोत भाटी, चरड़ा भाटी, लूणराव भाटी, कान्हड़ भाटी, ऊनड़ भाटी, सता भाटी, कीता भाटी, गोगादे भाटी, हमीर भाटी, हम्मीरोत भाटी, अर्जुनोत्त भाटी, केहरोत भाटी, सोम भाटी, रूपसिंहोत भाटी, मेहजलं भाटी, जेसा भाटी, सांवतसी भाटी, एपिया भाटी, तेजसिंहोन भाटी, साधर भाटी, गोपालदे भाटी, लाखण (लखमणा) भाटी, राजधर भाटी, परबत भाटी. हक्का भाटी, कुम्भा भाटी, केलायचा भाटी, भेसडेचा भाटी, सातलोत भाटी, मदा भाटी, ठाकृत्रसिंहोत भाटी, देवीदासोत भाटी, दूदा भाटी,   बेरीशालोत भाटी, ल्लूणकणोंत्तभाटी, दीदा भाटी, मालदेवोत , खेत्तसिंहोत्त भाटी, नारायणदायोन भाटी, सगतहोत भाटी, -आखेराजोत भाटी, कानोत, पृथ्वीराजोत भाटी, उदयसिंहोत्त भाटी, दूदावत भाटी, तेजमालोत भाटी, गिरधारीदासोत्त भाटी, वीरमदेवोत्त माटी, रावलोत भाटी, रावलोत देरावरिया भाटी, किलण भाटी, बिक्रमाजित केलण भाटी, शेखसरिया भाटी, हरभम भाटी, नेतावत भाटी, किशनावत भाटी, खीया भाटी-जेतावत, करणोत, धनराजोत्त माटी, बरसिह भाटी-वाला, सातल दूर्जनसालोन भाटी, पूणलिया भाटीं, बिदा भाटी, हमीर भाटी, शूरसेन यादव-बागड़िया, बनाफर छोकर

A LOOK AT THE FAMILY’S HISTORY

According to historical records,  Raja Jait Singh ruled Jaisalmer from 1496 to 1528. He had nine sons.  Their names were 1. Lunkaran Singh 2. Karam Singh 3. Mahirawal 4. Rajo 5. Mandleek 6. Narsingh Das 7. Jai Singh Dev 8. Rawal Ram and 9 Tilok Singh alias Bhairu Singh alias Berisal Singh 

Karam Singh, the second son of Raja Jait Singh moved from Jaisalmer  to western Uttar Pradesh for a bath in Ganges on 15th January 1528. His two younger brothers  Rawal Ram and   Tiloksi alias Bhairu Singh alias Berisal Singh accompanied him. On the way, they fought a battle with Raja Luth Verma of Anchar Garh. In this battle, Raja Luth Verma was defeated. However, the two borthers namely  Karam Singh and Rawal Ram were also martyred. The third brother Tilok Singh captured 360 villages of defeated Raja Luth Verma and established his rule in the area

Initially Rawal Family of Amka belonged to village Dhoom Manikpur, which is about 1.5 kilometres to its north. Thakur Ranjit Singh, one of the ancestors of Rawal Family was a resident of Dhoom Manikpur. He was a direct descendant of Berisal Singh. He had five sons. There names were 1. Thakur Mohar Singh 2. Thakur  Jhoom Singh 3. Thakur Sipahi Singh 4. Thakur Ram Dayal Singh and 5. Thakur Dharam Singh.  Thakur Ranjit Singh’s eldest son Thakur Mohar Singh established village Amka in 1818. All land of this village belonged to Rawal Family. Now some owners have sold their land and have shifted to other places. 

Thakur Mohar Singh had three sons namely Thakur Ramjas Singh, Thakur Moti Ram Singh and Thakur Mukhram Singh. The Rawal Family of Amka is the off springs of these three patriarchs. In 2018, Amka village completed 200 years of its existence. 

It may be mentioned that during the last five hundred years, descendants of Berisal ji have spread to many villages and towns in the western Uttar Pradesh. Some of  the important villages that are predominantly inhabited by Rawal Rajputs are Dhoom Manikpur, Ghodi Bachheda, Amka , Dadri, Jaitpur, Haji Pur, Samauddin Pur.  For the sake of better standard of living, safety, education, medical and other facilities, many Rawal family members  have now migrated from villages to other places like Ghaziabad, Noida, Greater Noida, Guru Gram. Some have even shifted to places like Mumbai England, Canada and Australia. The time is not far off, when it will be difficult to trace every member of the Rawal Family of Amka.